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शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

राग दरबारी

“राग दरबारी” हिंदी व्यंग्य उपन्यास की दुनिया में सबसे बड़ा नाम है……यह उपन्यास छपा था १९६८ में और १९७० में इसे साहित्य अकादमी पुरुस्कार से नवाज़ा गया…१९८६ में दूरदर्शन पर इसके ऊपर एक धारावाहिक भी प्रसारित हुआ था और जिसे लोगों ने खूब सराहा था….फ़िल्म शोले और राग दरबारी में एक समानता है…जब शोले फ़िल्म रिलीज़ हुई तो आलोचकों ने फिल्म को नकार दिया . फ़िल्म शुरूआती हफ्तों में दर्शकों को नहीं खींच पा रही थी यहाँ तक की रमेश सिप्पी फ़िल्म का क्लाईमेक्स फिर से शूट करना चाह रहे थे लेकिन फिर फ़िल्म ने इतिहास बना दिया…….इसी तरह राग दरबारी उपन्यास को आलोचकों ने नकार दिया था ..लेकिन जनता ने इसे हाथों हाथ लिया और आज ४७ साल बाद भी राग दरबारी साहित्यानुरागी पाठकों की पसंद बना हुआ है…देर से ही सही पर २००९ के ज्ञानपीठ पुरुस्कार से राग दरबारी के लिए श्रीलाल शुक्ल को पुरुस्कृत किया गया.

राग दरबारी उपन्यास झांकी है आजादी के बाद के भारत के गाँव की. गांव का नाम है शिवपालगंज……..इस व्यंग्य उपन्यास के पात्र एक दम सजीव हैं प्रेमचंद की कहानी के पात्रों की तरह. वो हमें हमारे गाँव में भी मिल जायेंगे…राग दरबारी में हम देखते हैं की आजादी के बाद का भारत जो की गाँव में बसता है, वहां पर कैसे गुटबाजी बसती है. मिनी भ्रस्टाचार कैसे पाँव पसारता है…….आज हम देखते हैं की ग्राम प्रधान के चुनाव में कैसे पैसा और बंदूकों का बोल बाला है तो आज़ादी के बाद की ग्राम व्यवस्था में इस भ्रस्टाचार की शुरुआत हो गयी थी…शिक्षा आज बहुत बड़ा व्यवसाय है तो इसकी शुरुआत भी हमें तब की व्यवस्था में मिलने लगी थी….साहित्य समाज का दर्पण होता है तो ५० और ६० के दशक में भारत के गाँव में क्या हो रहा था इसकी हमें झलक इस उपन्यास से मिलती है……..फिर इसमें नया क्या है.क्यों यह उपन्यास मील का पत्थर है………वजह.
वजह है श्रीलाल जी की शैली. उस वक्त के गाँव को अपने तीक्ष्ण व्यंगात्मक लहजे में  ३५ अध्याय के उपन्यास में रचना. वजह है उसके न भूलने वाले पात्र……..उन पात्रों की अपनी पहचान, लहजा, बौद्धिक स्तर और उनका स्टाईल. जिस तरह शोले के पात्र अमर हो गए वैसे ही राग दरबारी के पात्र अमर हैं……
१.वैद्य महाराज…..गाँव की राजनीति के केंद्र. साथ ही भ्रस्टाचार के भी.
२. बद्री पहलवान…..वैद्य महाराज के बड़े लड़के.. पहलवान और उनके उत्तराधिकारी.
३. रुप्पन बाबू……..वैद्य महाराज के छोटे सुपुत्र. कुछ न होते हुए भी अपने को बहुत कुछ समझने वाले. 
४. प्रिसिपल ……बात बात में अवधी की कहवात कहने वाले और वैद्य जी के कॉलेज में भ्रस्टाचार में सहयोगी. 
५. सनीचर……वैद्य जी का नंग धडंग रहने वाला नौकर जो बाद में गाँव प्रधान हो जाता है. 
६. रंगनाथ…….वैद्य जी का शहर से आया भांजा…जो न घर का न घाट का.
७. छोटे पहलवान….बद्री पहलवान के असिस्टेंट.
८. बेला ……गयादीन की बेटी . न जाने किससे उसका प्रेम चल रहा है…..और सभी उम्मीदवार उससे प्रेम करते हैं. 
और दूसरे तमाम पात्र..जैसे लंगड़, खन्ना मास्टर, कुसहर, जोगनाथ, गयादीन सेठ आदि.
उपन्यास की शुरुआत ही पढ़ कर लग जाता है की अन्दर बारूद भरा हुआ है हास्य व्यंग का

“शहर का किनारा। उसे छोड़ते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता था।

वहीं एक ट्र्क खड़ा था। उसे देखते ही यकीन हो जाता था, इसका जन्म केवल सड़कों से बलात्कार करने के लिये हुआ है। जैसे कि सत्य के होते हैं, इस ट्रक के भी कई पहलू थे। पुलिसवाले उसे एक ऒर से देखकर कह सकते थे कि वह सड़क के बीच में खड़ा है, दूसरी ऒर से देखकर ड्राइवर कह सकता था कि वह सड़क के किनारे पर है। चालू फ़ैशन के हिसाब से ड्राइवर ने ट्रक का दाहिना दरवाजा खोलकर डैने की तरह फैला दिया था। इससे ट्रक की खूबसूरती बढ़ गयी थी; साथ ही यह ख़तरा मिट गया था कि उसके वहां होते हुये कोई दूसरी सवारी भी सड़क के ऊपर से निकल सकती है।

सड़क के एक ऒर पेट्रोल-स्टेशन था; दूसरी ऒर छ्प्परों, लकड़ी और टीन के सड़े टुकड़ों और स्थानीय क्षमता के अनुसार निकलने वाले कबाड़ की मदद से खड़ी की हुई दुकानें थीं। पहली निगाह में ही मालूम हो जाता था कि दुकानों की गिनती नहीं हो सकती। प्राय: सभी में जनता का एक मनपसन्द पेय मिलता था जिसे वहां गर्द, चीकट, चाय, की कई बार इस्तेमाल की हुई पत्ती और खौलते पानी आदि के सहारे बनाया जाता था। उनमें मिठाइयां भी थीं जो दिन-रात आंधी-पानी और मक्खी-मच्छरों के हमलों का बहादुरी से मुकाबला करती थीं। वे हमारे देशी कारीगरों के हस्तकौशल और वैज्ञानिक दक्षता का सबूत देती थीं। वे बताती थीं कि हमें एक अच्छा रेजर-ब्लेड बनाने का नुस्ख़ा भले ही न मालूम हो, पर कूड़े को स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों में बदल देने की तरकीब दुनिया में अकेले हमीं को आती है।”

उपन्यास का एक और अंश पढ़ें…

“यहाँ बैठकर अगर कोई चारों ओर निगाह दौड़ाता तो उसे मालूम होता, वह इतिहास के किसी कोने में खड़ा है। अभी इस थाने के लिए फ़ाउंटेनपेन नहीं बना था, उस दिशा में कुल इतनी तरक्की हुई थी कि कलम सरकण्डे का नहीं था। यहाँ के लिए अभी टेलीफ़ोन की ईजाद नहीं हुई थी। हथियारों में कुछ प्राचीन राइफ़लें थीं जो, लगता था, गदर के दिनों में इस्तेमाल हुई होंगी। वैसे, सिपाहियों के साधारण प्रयोग के लिए बाँस की लाठी थी, जिसके बारे में एक कवि ने बताया है कि वह नदी-नाले पार करने में और झपटकर कुत्ते को मारने में उपयोगी साबित होती है। यहाँ के लिए अभी जीप का अस्तित्व नहीं था। उसका काम करने के लिए दो-तीन चौकीदारों के प्यार की छाँव में पलने वाली घोड़ा नाम की एक सवारी थी, जो शेरशाह के जमाने में भी हुआ करती थी।

थाने के अंदर आते ही आदमी को लगता था कि उसे किसी ने उठाकर कई सौ साल पहले फ़ेंक दिया है। अगर उसने अमरीकी जासूसी उपन्यास पढ़े हों, तो वह बिलबिलाकर देखना चाहता है कि उँगलियों के निशान देखने वाले शीशे, कैमरे, वायरलैस लगी हुई गाड़ियाँ- ये सब कहाँ हैं? बदले में उसे सिर्फ़ वह दिखता जिसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है। साथ ही, एक नंग-धडंग लंगोटबंद आदमी दिखता जो सामने इमली के पेड़ के नीचे भंग घोंट रहा होता। बाद में पता चलता कि वह अकेला आदमी बीस गाँवों की सुरक्षा के लिए तैनात है और जिस हालत में जहाँ है, वहीं से उसी हालत में वह बीस गाँवों में अपराध रोक सकता है, अपराध हो गया हो तो उसका पता लगा सकता है और अपराध न हुआ हो, तो उसे करा सकता है। कैमरा, शीशा, कुत्ते, वायरलैस उसके लिए वर्जित हैं। इस तरह थाने का वातावरण बड़ा ही रमणीक और बीते दिनों के गौरव के अनुकूल था। जिन रोमांटिक कवियों को बीते दिनों की याद सताती है, उन्हें कुछ दिन रोके रखने के लिए ये आदर्श स्थान था।

जनता को दरोगाजी और थाने के सिपहियों से बड़ी-बड़ी आशायें थीं। ढाई-तीन सौ गाँवों के उस थाने में अगर आठ मील दूर किसी गाँव में नकब लगे तो विश्वास किया जाता था कि इनमें से कोई-न-कोई उसे जरूर देख लेगा। बारह मील की दूरी पर अगर रात के वक्त डाका पड़े, तो इनसे उम्मीद थी कि ये वहाँ डाकुओं से पहले ही पहुँच जायेंगे। इसी विश्वास पर किसी भी गाँव में इक्का-दुक्का बंदूकों को छोड़कर हथियार नहीं दिये गये थे। हथियार देने से डर था कि गाँव में रहने वाले असभ्य और बर्बर आदमी बंदूकों का इस्तेमाल करना सीख जायेंगे, जिससे वे एक-दूसरे की हत्या करने लगेंगे, खून की नदियाँ बहने लगेंगी। जहाँ तक डाकुओं से उनकी सुरक्षा का सवाल था, वह दरोगाजी और उनके दस-बारह आदमियों की जादूगरी पर छोड़ दिया गया था।”

मित्रों, आपने महसूस किया होगा की अगर आप अपने पसंदीदा कलाकार की एक साथ ५ -१० फिल्मे देख डाले तो आप खुद ब खुद उसकी मिमक्री करने लगते हैं या आप उस कलाकार को कॉपी करने लगते हैं…..यही मेरे साथ भी हुआ..राग दरबारी मैंने सैंकड़ो बार पढ़ा है..इतना की यह मुझे याद हो गया है….इतना की पहली पुस्तक फट गयी और दूसरी खरीदनी पड़ी…ऐसे पाठक की तो श्रीलाल जी ने भी कल्पना नहीं की होगी…….इसका खुमार जब सर चढ़ कर बोलने लगा तो मैंने एक छोटी सी राग दरबारी भी लिख डाली थी २००९ में जिसे पुराने ब्लॉग पर लोगों ने खूब पसंद किया और यहाँ तक कह डाला की अगर न बताया जाय तो कोइ न कहेगा की यह श्रीलाल शुक्ल ने नहीं लिखी है. आप के लिए उस लेख का लिंक नीचे दे रहा हूँ. हालांकि इस पर दिए गए पाठकों के कमेंट्स पुराने ब्लॉग पर हैं.

राग दरबारी : भाग २

उम्मीद करता हूँ की “राग दरबारी” का इतना परिचय आपको इसे खरीद कर पढने के लिए प्रेरित करेगा…….राजकमल प्रकाशन इसको छाप रहा है और हर बुक स्टोर पर जहाँ हिंदी साहित्य मिलता है यह किताब उपलब्ध होगी……नेट पर ऑनलाइन पढने के लिए आप नीचे दिए लिंक पर क्लीक कर सकते हैं.

राग दरबारी (व्यंग्य उपन्यास)

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