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शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

आधा गाँव

 

मित्रों, आज मैं अपनी एक और पसंदीदा किताब से आपका परिचय करवाना चाहता हूँ । वह किताब है महान लेखक राही मासूम रज़ा का उपन्यास ‘आधा गांव’ । मैं ‘आधा गांव’के बारे में नहीं जानता था । हिंद-महासागर जैसा विशाल हिंदी साहित्य पढ़ने का मन हो रहा हो पर किनारे खड़े होकर किस जहाज पर सवार हों, किसे पढ़ें, यह भी एक प्रश्न उठ खड़ा होता है नये नये साहित्य के रसिया के मन में । उन दिनों जो लेखक अच्छा लगा बस उसी बस पर चढ़ गये । खरीद कर ही पढ़ना पड़ता था क्योंकि अमूमन हिंदी साहित्य की किताबें कोयी किराये पर नहीं देता । किराये पर देने वाले सुरेन्द्र मोहन पाठक रखते हैं और वो भी मेरे प्रिय लेखक हैं । योगेश विक्रांत और गरिमा (आज दोनों पति-पत्नी टी.वी. सीरियल इंडस्ट्री में अपनी जगह बना चुके हैं) के साथ उन दिनों रंगमंच पर “मैला आंचल” नाटक कर रहा था । यह बात है सन 2000 की । “मैला आंचल” नाटक की रिहर्सल के दौरान एक दूसरे कलाकार से बातचीत में मैंने पूछ लिया की क्या राही मासूम रज़ा ने “नीम का पेड़” धारावाहिक पर कोयी उपन्यास लिखा है या सिर्फ इस लोकप्रिय धारावाहिक का स्क्रीनप्ले ही लिखा है । उस वक्त ‘नीम का पेड़’ दूरदर्शन पर धूम मचा रहा था । एक तो पंकज कपूर का लाजवाब अभिनय दूसरे उस धारावाहिक का शिल्प, किरदार, कहानी, डायलॉग्स । कुल मिलाकर ‘नीम का पेड़’ दूरदर्शन के स्वर्णिम इतिहास का एक हिस्सा है । तो मित्रों, उस कलाकार ने अंदाजन ही मुझे बताया कि ‘नीम का पेड़’की कहानी ‘आधा गांव’ उपन्यास पर आधारित है । मैंने तब तक राही मासूम की एक भी किताब नहीं पढ़ी थी । उसी दिन ‘आधा गांव’ उपन्यास खरीद लाया पर उसमें ‘नीम का पेड़’ का ‘बुधई’ नहीं मिला । हालांकि राही मासूम रजा ने ‘नीम का पेड़’ उपन्यास भी लिखा है जो कि बहुत बाद में मैंने खरीद कर पढ़ा, पर इस चक्कर में ‘आधा गांव’ उपन्यास पहले पढ़ना पड़ा ।

पहली बार पढ़ा तो कुछ असर नहीं हुआ क्योंकि मैं उस पूरे उपन्यास में बुधई, ज़मींदार अली ज़ामिन खाँ, मुस्लिम मियां को खोजता रहा पर यहां तो सारी कहानी गंगौली गांव के शिया मुस्लमानों की थी । धोखा हो गया । जो सोच कर उपन्यास खरीदा और पढ़ डाला वो कहानी ही नदारद थी । लेकिन पढ़ने के बाद महसूस हुआ कि ‘आधा गांव’ ‘नीम के पेड़’ से बहुत बड़ी रचना है । बहुत बड़ी रचना । इतनी बड़ी की राही मासूम रज़ा ने अपने साहित्यिक जीवन की शुरूआत ‘आधा गांव’ से की और वह पूरी ज़िंदगी ‘आधा गांव’ के सुरूर में रहे । उनके पूरे साहित्य के बैकग्राउंड में ‘आधा गांव’ है । आप उनके दूसरे उपन्यास उठा कर देखिये । फिर चाहे वह ‘कटरा बी आरजू’ हो ‘सीन 75’ हो ‘नीम का पेड़’ हो ‘दिल एक सादा कागज’ हो ‘ओस की बूंद’ हो या फिर ‘टोपी शुक्ला’ हो । उनके सभी उपन्यासों में एक फ्लेवर मिलेगा और वह फ्लेवर ‘आधा गांव’ का है ।

लेखक खुद ‘आधा गांव’ की शुरूआत में लिखता है “ यह उपन्यास वास्तव में मेरा एक सफर है । मैं ग़ाज़ीपुर की तलाश में निकला हूं लेकिन पहले मैं अपनी गंगोली में ठहरूंगा। अगर गंगोली की हक़ीक़त पकड़ में आ गयी तो मैं ग़ाज़ीपुर का एपिक लिखने का साहस करूंगा” .

वास्तव मैं ‘आधा गांव’ के बाद उन्होंने जो भी कुछ लिखा है वह मेरी नजर में सिर्फ ‘आधा गांव’ का विस्तार है । उनकी हर रचना में ‘आधा गांव’ बसता है । यह मेरा नजरिया है और जिन्होंने राही मासूम को तबीयत से पढ़ा है वह इससे सहमत होंगे । उनके पूरे साहित्य की एक ही थीम है हिंदू-मुस्लिम भाई चारा, गंगा-जमुनी तहज़ीब । एक ही धातु (दोनों के एक पूर्वज) से बने हुये दो चुम्बक जो एक दूसरे से चिपके हुये हैं पर जरा सा साईड बदल जाये तो तगड़ा रिपेल मारते हैं ।

कहा जाता है कि ‘मैला आंचल’ और ‘परती: परिकथा’ हिंदी के बड़े आंचलिक उपन्यास हैं पर मेरी नजर में सबसे बड़ा आंचलिक उपन्यास ‘आधा गांव’ है । इसकी अवधी-उर्दू मिश्रित भाषा पढ़ कर ऐसा लगता है मानो एक मीठे पानी का झरना कल-कल करता बह रहा है और आप उस पानी में भीग रहे हैं और उसका रस ले रहे हैं । आंचलिक इस मायने में की अगर पूर्णिया जिले और कोसी नदी पर लिखा उपन्यास आंचलिक हो सकता है तब गाज़ीपुर के गंगौली गांव के शियाओं की कहानी क्यों नहीं आंचलिक हो सकती है ।

जिस उपन्यास का नशा राही मासूम पर ताउम्र चढ़ा रहा उसका नशा आपके सिर पर न चढ़े, ऐसा हो नहीं सकता । ‘राग दरबारी’ के बाद अगर कोयी दूसरा उपन्यास मैंने बारंबार पढ़ा है तो वह ‘आधा गांव’ है । ‘आधा गांव’ ‘नदिया के पार’ है (‘नदिया के पार’ अपने समय की गांव के परिवेश पर बनी हिंदी सिनेमा की एक बड़ी ब्लाक बस्टर फिल्म थी, मील का पत्थर थी) ।

अब आते है उपन्यास पर । हालांकि ‘आधा गांव’ राही मासूम का पहला उपन्यास नहीं है । वे साहित्य की दुनिया में 1946 में कदम रख चुके थे और उनका पहला उपन्यास 1950 में ‘मुहब्बत के सिवा’आ चुका था पर उन्हें पहचान ‘आधा गांव’ ने ही दी । गाज़ीपुर ज़िले से कुछ मील दूर बसा गंगौली उनका गांव है । ‘आधा गांव’ इसी गांव में बसे शिया मुसलमानों की कहानी है । अगर आपने कभी मुस्लिमों के त्यौहार मोहर्रम को नहीं देखा है तो आप सिर्फ ‘आधा गांव’ को पढ़ कर मोहर्रम के बारे में बहुत कुछ जान सकते हैं । आजादी के पहले का गंगौली गांव और आजादी के बाद का गंगौली गांव । बंटवारे के झंझावात में इधर उधर झूलता गंगौली गांव । गांव के लोग परेशान थे कि कहीं कायदे आजम मियां जिन्ना गंगौली को भी पाकिस्तान में न शामिल कर लें । ‘आधा गाँव’ कहानी है आजादी के पहले की एक पीढ़ी और आजादी के बाद की दूसरी पीढ़ी की । हिंदू मुस्लिम झगड़ा तो इस गांव में है ही नहीं । दोनों यहॉं एक दूसरे की जरूरत हैं । वगैरह वगैरह…………………….।

यह तो लगभग हर उपन्यास में आपको मिल जायेगा । फिर ‘आधा गांव’ की खासियत क्या है । खासियत है…….. ज़िंदगी पानी की तरह बहती है इसके पन्नों में । कहते हैं न कि साहित्य समाज का दर्पण है और समाज में कोयी सेंसरशिप नहीं होती है । वह साहित्य ही क्या जो जीवन के हर पहलू को सेंसर कर दे । जब भगवान ने कोयी सेंसर की कैंची नहीं चलायी तब साहित्यकार क्यों चलाये । आप माने न माने ‘आधा गांव’ और ‘मेरे बचपन के दिन’ में सिर्फ एक अंतर है, राही मासूम ने खुदा पर उंगली नहीं उठायी पर तस्लीमा ने अल्लाह के नाम पर व्यापार करने वालों पर उंगली उठाई और बदले में आज भी वह देशबदर है । मेरी निगाह में दोनों किताबों में कोयी अंतर नहीं है । सेक्स और समलैंगिक विषयों पर भारत में मासूम, इसरत चुगतई वगैरह ने लिखा, अलीगढ और फायर जैसी फ़िल्में बनी और सराही गयीं, किसी ने कोयी आपत्ति नहीं की और जब सआदत अली मंटो ने लिखा तो पाकिस्तान में उस पर मुकद्दमा चल गया और बंग्लादेश में तस्लीमा नसरीन को देश छोड़ना पड़ा । भारतीय समाज की यही खासियत है । भले ही आज 25 साल बाद चिदंबरम को यह महसूस होता है कि ‘सैटेनिक वर्सेज’पर प्रतिबंध लगाना गलत था जो कि उन्होंने ही लगाया था राजीव सरकार में गृह राज्य मंत्री पद पर रहते हुये । बात कहां से कहां पहूँच गयी । राही मासूम ने गंगौली के शिया मुसलमानों की सिर्फ कहानी नहीं कही है, जब आप ‘आधा गांव’ पढ़ेंगे तो पूरी गंगौली के दो पुश्तों की कहानी आपकी आंखों के सामने सजीव हो जायेगी । अपनी पूरी आवाज, मासूमियत, अक्खड़पन, दबंगई, बेबाकी और बेपर्दगी के साथ । नन्हा मासूम हर घर की कहानी बयां करता है । हर रिश्ते को टटोलता है । रिश्तों की मिठास बतलाता है ओर दुश्मनी का कसैलापन भी बयां करता है । पहली बार आपको यहाँ माँ, बेटी की गाली में भी एक मिठास और सोंधापन मिलेगा और यही लेखक की खासियत है, उसके कलम की ताकत है.

‘आधा गांव’ की कुछ पंक्तियॉं नीचे दे रहा हूँ आप भी आनंद उठाईये ।

मैं गोरी दादी के आँगन से भागता हुआ दक्खिन वाले तीन-दर्रे में घुस गया। ठोकर लगी, गिर पड़ा। भाई साहब मेरे पीछे-पीछे भागे आ रहे थे। बात यह हुई थी कि बाजी ने धनया बनाकर बक्स में छुपा रखी थी। हमने देख लिया। धनया ख़त्म हो गयी। बाजी ने अम्माँ से शिकायत की। अम्माँ ने हमें दौड़ा लिया— इसलिए हम भाग रहे थे।

भाई साहब ने लपककर मुझे उठाया ही था कि अम्माँ का हाथ सिर पर दिखायी दिया। मैं तो गिरई मछली की तड़पकर उनके हाथों से निकल गया। लेकिन भाई साहब के बाल अम्माँ के हाथों में आ गये। मैं चुपचाप वहाँ से सरक लिया। सामने ही नईमा दादी की ख़लवत का छोटा-सा दरवाज़ा था, मैं ख़लवत में घुस गया।

ख़लवत के छोटे-से आँगन में अमरूद के एक पेड़ के बाद कुछ बचता ही नहीं था, मुश्किल से दो खटोले पड़ जाते थे, उनमें से एक खटोले पर नइमा दादी लेटी हुई तसबीह फेर रही थी; और उनके सिर के पास से गुज़रनेवाली अलगनी पर दो काले कुरते, दो काले आड़े पाजामे और दो काले दुपट्टे पड़े हुए सूख रहे थे। एक दुपट्टे के कोने से काला रंग बूँद-बूँद टपक रहा था और खटोले की सुतली को भिगो रहा था।

मुझे नहीं मालूम कि मँझले दादा के अब्बा को इन नइमा दादी में ऐसी कौन-सी बात नज़र आयी थी कि उन्होंने एक अच्छी-खासी गोरी-चिट्टी दादी को छोड़कर करइल मिट्टी की इस पुतली को निक़ाह में ले लिया और फिर उनके लिए उन्होंने यह ख़लवत बनवायी। नईमा दादी बहरहाल जुलाहिन थीं और सैदानियों के साथ नहीं रह सकती थीं। पुराने ज़माने के लोग इसका बड़ा ख़याल रखा करते थे कि कौन कहाँ बैठ सकता है और कहाँ नहीं। मेरी समझ में ये बातें नहीं आतीं, लेकिन मेरी समझ में तो और बहुत-सी बातें भी नहीं आतीं। मेरे समझ में तो यह भी नहीं आता कि मँझले दा के एकलौते बेटे गुज्जन मियाँ उर्फ़ सैयद ग़ज़नफ़र हुसैन ज़ैदी यानी छोटे दा ने एक अच्छी-ख़ासी, गोरी-चिट्टी, गोल-मटोल, चिकनी-चुपड़ी हुस्सन दादी को छोड़कर ज़मुर्रुद नामी एक रण्डी को क्यों रख लिया ? मैंने ज़मुर्रुद को नहीं देखा है, लेकिन हुस्सन दादी को मैंने अपनी आँख खोलने से लेकर उसकी आँख बन्द हो जाने तक देखा है। वह बड़ी कंजूस थीं, मगर बड़ी ख़ूबसूरत थीं। ज़मुर्रुद को गंगौली की किसी औरत ने नहीं देखा था, मगर सभी का यह ख़याल था कि उसने गुज्जन मियाँ पर कोई टोना-टोटका कर दिया है; इसीलिए गंगौली की तमाम औरतों को पक्का यक़ीन था कि वह बंगालिन है, हालाँकि वह बाराबंकी की थी।

लेकिन गंगौली की औरतों को गुज्जन मियाँ से यह शिकायत नहीं थी कि उन्होंने कोई रण्डी डाल ली है। रण्डी डाल लेने में कोई बुराई नहीं, लेकिन हुस्सन जैसी खूबसूरत बीवी को छोड़ना अलबत्ता गुनाह है। आख़िर अतहर मियाँ ने कानी दुल्हन यानी राबेया बीवी से निभायी कि नहीं ! जबकि अतहर मियाँ की गिनती खूबसूरतों में होती थी। मगर उन्हें खुदा करवट-करवट जन्नत दे, उन्होंने कभी कानी दुल्हन का दिल न मैला होने दिया, जबकि उन्हीं दिनों उस खाहुनपीटी जिनती नाइन की जवानी ऐसी फटी पड़ रही थी कि मियाँ लोग पोगल हुए जा रहे थे, और हर ब्याहता को इसका धड़का लगा रहता कि कब उसके आँगन में एक ख़लवत बन जाएगी। लेकिन अतहर मियाँ ने उसकी तरफ न देखा कि दुल्हन का दिल मैला होगा—और वह मुई जितनी चुई जा रही थी उन पर….

मगर जिस तरह मेरी समझ में नईमा दादी और ज़मुर्रूद का कहानी नहीं आती, उसी तरह मेरी समझ में यह भी नहीं आता की जब रब्बन बी कानी थी, और अतहर मियाँ बिलकुल चन्दे आफ़ताब और चन्दे माहताब थे, और जिनती नाइन उन पर चुभी जा रही थी, तो आख़िर उन्होंने अपना दामन क्यों नहीं फैलाया ?

दूसरा ब्याह कर लेना या किसी ऐरी-ग़ैरी औरत को घर में डाल लेना बुरा नहीं समझा जाता था, शायद ही मियाँ लोगों का कोई ऐसा खानदान हो, जिसमें क़लमी लड़के और लड़कियाँ न हों। जिनके घर में खाने को भी नहीं होता वे भी किसी-न-किसी तरह क़लमी आमों और क़लमी परिवार का शौक़ पूरा कर ही लेते हैं !

बस एक मीर अतहर हुसैन ज़ैदी ने ऐसा नहीं किया। वह पूरा साल अफ़ीम खा-खाकर मोहर्रम की तैयारियों में सर्फ़ दिया करते थे। उन्होंने अपनी जारी जिन्दगी ही मोहर्रम की तैयारियों में गुज़ार दी।

सच तो यह है कि उन दिनों सारा साल मोहर्रम के इन्तज़ार ही में कट जाता था। ईद की ख़ुशी अपनी जगह, मगर मोहर्रम की खुशी भी कुछ कम नहीं हुआ करती थी। बक़रीद के बाद से ही मोहर्रम की तैयारी शुरू हो जाती। दद्दा मरसिये गुनगुनाना शुरू कर देने, अम्माँ हम सब के लिए काले कपड़े सीने में लग जातीं; और बाजी नौहों की बयाज़े निकालकर नयी-नयी धुनों की मश्क़ करने लगतीं। उन दिनों नौहे की धुनों पर फ़िल्मी म्यूज़िक का क़ब्ज़ा नहीं हुआ था। नौहों की धुनें देहातों, क़स्बों और छोटे-मोटे शहरों की लोक-धुनों की तरह सादा और साथ-ही-साथ गम्भीर हुआ करती थीं, और जब बाजी, अम्माँ या कोई और खाला या फूफी काले कपड़े पहनकर नौहा पढ़ने खडी़ होतीं :

सोते-सोते सकीना यह कहती उठी शह का सीना नहीं तो सकीना नहीं…तो बयाज़ सँभालनेवाली कलाइयाँ एकदम से बदल जातीं। सुननेवालों को ऐसा मालूम होता जैसे नौहे की आवाज़ खास दमिश्क के बन्दीघर से आ रही है, और देखनेवाली आँखें देख लेतीं कि एक ज़मीनदोज़ क़ैदख़ाने में हुसैन की बहन ज़ैनब हुसैन की चहेती बेटी सकीना को बहलाने की कोशिश कर रही है…

“आधा गांव’ को राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया है । यह उपन्यास पेपरबैक और हार्ड बाउंड दोनों में उपलब्ध है । हिंदी साहित्य रखने वाली हर दुकान पर यह किताब मिलेगी । इस उपन्यास की बहुत डिमांड रहती है इसलिये यह हमेशा उपलब्ध रहती है । पढ़ियेगा तो वक्त और पैसा दोना वसूल हो जायेगा । गारंटी मेरी है ।

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