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शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

कौन हूँ मैं

मित्रों, आप में से कुछ लोगों को लंबे उपन्यास पढ़ने को शौक होगा । मोटे उपन्यास पढ़ने के लिये थोड़े धैर्य की आवश्यकता होती है क्योंकि इन्हें खत्म करने में कई दिन लग जाते हैं । आज मैं आपको अपने एक और प्रिय उपन्यास के बारे में बताने जा रहा हूँ । इसके लेखक हैं मनोहर श्याम जोशी । हिंदी साहित्य के रसिया इस नाम से भली भांति परिचित होंगे । कुरू-कुरू स्वाहा, हरिया हरकुलिस की हैरानी, कक्काजी कहिन, कसप, क्याप, टटा प्रोफेसर, हमजाद जैसे उपन्यासों के लेखक मनोहर श्याम जोशी जी का अखिरी उपन्यास था “कौन हूँ मै” । इस उपन्यास को पूरा करते ही उनकी मृत्यु हो गयी थी । उन्होंने इसे छपते हुये नहीं देखा । मनोहर श्याम जोशी जी ने भारत को पहला सोप ओपरा दिया था । दूरदर्शन पर आज से 30 साल पहले प्रसारित होने वाले धारावाहिक “बुनियाद” को लिखने वाले मनोहर जी ही थे । इसके अलावा उन्होंने ‘कक्का जी कहिन,’ ‘मुंगेरी लाल के हसीन सपने’, ‘हम लोग’, ‘हमराही’ आदि धारावाहिकों का स्क्रिप्ट भी लिखी । मनोहर जी ने फिल्मों के लिये भी लिखा । उनकी लिखी फिल्में हैं – भ्रष्टाचार, हे राम, अप्पू राजा आदि ।

मनोहर श्याम जोशी का जन्म 9 अगस्त 1933 को अजमेर में हुआ था और 30 मार्च 2006 को उनकी मृत्यु हुयी थी । महान लेखक अमृतलाल नागर और अज्ञेय जी के वे प्रिय लोगों में थे और बौलीवुड के महान निर्देशक ऋषीकेश मुखर्जी के परम मित्रों में । जोशी जी मेरे पसंदीदा लेखकों में रहे हैं । इसका मुख्य कारण उनका व्यंग्य लेखन है । जोशी जी की सिर्फ एक किताब ने मुझे उनका दीवाना बना दिया । वह किताब थी ‘कक्काजी कहिन’ । इसी किताब पर आधारित ‘कक्का जी कहिन’ एक सीरियल 1980 के दशक में दूरदर्शन पर प्रसारित किया गया था । निर्देशक ने जैसे किताब से उठा कर ज्यों का त्यों सीरियल तैयार कर दिया था और उस पर ओम पुरी जी की गजब एक्टिंग के क्या कहने । इसके अलावा जिसने भी उनका लिखा धारावाहिक ‘मुंगेरीलाल के हसीन सपने’ देखा होगा वो उस धारावाहिक को कभी नहीं भूल पायेगा । उस धारावाहिक ने ही टीवी और फिल्म इंडस्ट्री को रघुवीर यादव जैसा महान कलाकार दिया है।  जैसे मैंने रागदरबारी को कॉपी करते हुये एक व्यंग्य लेख लिखा है बिल्कुल वैसे ही मैंने ‘कुरू कुरू स्वाहा’ की कॉपी करके भी एक व्यंग लिखा है । जब आप किसी कलाकार या लेखक को कॉपी  करने लगें तब यही कहा जायेगा कि उसका भूत आपके सिर चढ़ कर बोल रहा है ।

जोशी जी के ऊपर अश्लीलता का ठप्पा भी लगा । उनके उपन्यास ‘हरिया हरक्यूलिस की हैरानी’ और ‘हमजाद’ को लोग अश्लील मानते हैं । वाकई में इन दोनों उपन्यासों का चरित्र भारतीय जनमानस के  विपरीत है लेकिन कहा जाता है साहित्य समाज का दपर्ण होता है । यह दोनो उपन्यास भी समाज के अछूते’ छिपे’ अंधेरेपक्ष और अंधेरे में होने वाले सफेदपोश अपराध’, घिनौने’ काले और विकृत रूप का चित्रण करते हैं’ भले ही यह समाज के 0.01 प्रतिशत लोगों का चित्रण करता हो । हरिया हरक्यूलिस को जब इंडिया टुडे ने धारावाहिक रूप में छापा तब हिंदी के लेखक बटरोही जी ने इंडिया टुडे को पत्र लिख कर कहा कि क्या उल्टी करवा कर ही मानेंगे । तमाम साहित्यकारों ने इसकी आलोचना की पर जोशी जी अपने स्टैंड पर कायम रहे । समाज के अंधेरेपक्ष पर पहली बार तो लिखा नहीं गया तब इतनी हायतौबा क्यों । मैं भी सोचता हूँ कि जब भगवान ने कोयी सेंसरशिप नहीं लगायी तब कलाकार और साहित्यकारों पर बंदिश क्यों हो  । हां अगर आपकी कला फर्जी हो और जानबूझ कर किसी को परेशान करनेवाली और अपमानकारक हो तब उसपर रोक लगनी चाहिये लेकिन अगर उसमें सचाई है तब सेंसरशिप बेमानी और तानाशाही हो जाती है । ‘कौन हूँ मैं’भी कहीं कहीं एडल्ट है लेकिन उपन्यास भी तो एडल्ट लोग ही पढ़ते हैं । हिंदी में कहें तो कहीं कहीं श्रृंगार रस की प्रधानता है] नायक की बरजोरियां हैं लेकिन पद्य में नहीं गद्य में ।

‘कौन हूँ  मैं’ मेरे पसंदीदा उपन्यासों की लिस्ट में शामिल है और मैं चाहता हूँ कि कभी न कभी आप भी इस उपन्यास का आनंद उठायें । सफल उपन्यास वे होते हैं जो शुरू से लेकर अंत तक पाठक को अपनी रोचकता के लिये बांधे रहें। अंत में क्या होगा,  कहानी का अंत कैसा होगा,  यह प्रश्न पाठक को उपन्यास से बांधे रहता हैं । रोचकता और रोमांच बहुत से उपन्यासों की जान होती है । कुछ अतिसमझदार लोग समय बचाने के लिये सीधे अंतिम पन्ने पर चले जाते हैं और कहानी का अंत जानकर उपन्यास पढ़ने के रोमांच का मर्डर कर डालते हैं । मुझे आपसे ऐसी उम्मीद नहीं है । खैर ।  कुछ उपन्यास ऐसे भी होते हैं जिन्हें पढ़ते हुये लगात है कि ये तो मेरी कहानी है । या पाठक खुद को उपन्यास का एक चरित्र समझने लगता है और कहानी के साथ साथ वह भी बहने लगता है । ऐसे उपन्यासों को पढ़ने का अपना ही एक मजा है । इस तरह के उपन्यासों में एक बहुत बड़ा नाम है ‘गुनाहों का देवता’ । जिस किसी ने भी अपने जीवन में कभी भी प्रेम किया है उसे गुनाहों का देवता पढ़नी चाहिये । प्रेम पर लिखा उपन्यास गुनाहों का देवता’ प्रेम की इनसाइक्लोपीडिया है, लेकिन उसकी चर्चा कभी नहीं करूंगा । क्योंकि उसे पढ़ने के बाद मैंने उसे फिर कभी न पढ़ने की कसम खायी थी और वह उपन्यास मेरी लाइब्रेरी में है भी नहीं । उसको पढ़ने के बाद पूरा 1 महीना लगा था मुझे सामान्य होने  में । फिर कमबख्त वो कहानी भी तो मेरे शहर की थी, इसलिए वो गहरे उतर गयी सीने में.उसकी बात नहीं करनी है मुझे । बात करते हैं “कौन हूँ  मैं’की ।

कहा जाता है कि “कौन हूँ मैं’की कहानी आजादी के समय चर्चित हुये एक मुकद्दमे की कहानी है । जिसने पूरे देश का ध्यान अपनी तरफ खींच लिया था और देश की जनता का झुकाव कहानी के नायक की तरह हो गया था क्योंकि उसकी रियासत पर अंग्रेज सरकार ने कब्जा कर लिया था । यह मुकद्दमा लंबा चलता है और अंत में इसका निर्णय ब्रिटेन में स्थित प्रीवी कौंसिल (आजादी के पहले जब भारत में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना नहीं हुयी थी तब हाई कोर्ट के निर्णय के खिलाफ अपील इंग्लैण्ड में प्रीवी कौंसिल में की जाती थी) ने दिया था । इस मुकद्दमें की पैरवी करने के लिये तब के बंगाल के एक बड़े स्वतंत्रता सैनानी भी आये थे ।

कभी कभी हमें-आपको यह लगता है कि हमारे जीवन में होने वाली यह घटना हमने पहले भी कहीं देखी है या इसका पूर्वाभास हमें पहले सा था या ऐसा लगता है कि हम यहां पहले भी आ चुके हैं या इस व्यक्ति से पहले भी कहीं मिल चुके हैं । कभी कभी लगता है कि हमारे अंदर हमारी कोयी याद बहुत गहरी दबी हुयी है शायद पिछले जन्म की, धुंधली सी । कभी लगता है कि हमारे अंदर छिपी कोयी और शख्सियत है जो इस शख्सियत से अलग हो सकती है। मनोविज्ञान में शायद इसे किसी बीमारी का नाम दे दिया जाये पर धुंधली यादों का क्या किया जाये । ऐसा बहुतों के साथ हाता है और नहीं भी । ‘कौन हूँ  मैं’कुछ इसी तरह की कहानी है ।

यह कहानी है अविभाज्य भारत में ढाका के पास की एक रियासत ‘भवाल’ के छोटे राजकुमार मेजोकुमार की । जैसा की होता है राजसी लोगों का जीवन वैभव विलास में डूबा रहता है वैसा ही उसका भी जीवन था लेकिन जवानी में ही उसकी दार्जलिंग में बीमारी से मौत हो जाती है और साथ के दो चार लोग उसका दाहसंस्कार करने के लिये जब श्मशान ले जाते हैं तब उसकी लाश गायब हो जाती है और वे किसी और लाश का दाहसंस्कार करके वापस लौट जाते हैं और उसे मृत मान लिया जाता है । वो राजकुमार संन्यासियों की एक मंडली के साथ 11 साल भटकता है अपनी अनचीन्हीं यादों के साथ और सबसे पूछता फिरता है, ‘कौन हूँ मैं’ । धीरे धीरे जब उसकी थोड़ी बहुत याद लौटती भी है तब उसके अपने ही उसे पहचानने से इंकार कर देते हैं । 24 घंटे साथ रहने वाली पत्नी भी उसे नहीं पहचानी । तब वह अपनी पहचान के लिये एक लंबा मुकद्दमा लड़ता है और कहा जाता है कि उस मुकद्दमें ने सारे देश का ध्यान आकर्षित किया था और यह लड़ाई अंगे्रज सरकार बनाम एक सन्यासी की बन गयी थी । कहानी संक्षेप में यही है लेकिन मनोहर जोशी जी ने अपनी कालजयी लेखनी से इसे इतनी रोमांचक बना दिया है कि इसे पढ़ने के बाद आप कई दिनों तक मेजोकुमार को महसूस करते रहेंगे । मैं तो आज भी करता हूँ  जबकि इसे पढ़े आज 8-9 साल हो चुके हैं । दुबारा भी कई बार पढ़ा है ।

मनोहर जी की कई भाषाओं पर अच्छी पकड़ थी जैसे बांग्ला, पंजाबी, संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी, कुमाऊंनी आदि । इस उपन्यास में भी आपको बहुत से पंजाबी और बंग्ला के शब्द पढ़ने को मिलेंगे जो कि कहानी के चरित्रों की भाषा है  । ‘कौन हूँ मैं’ के मुख्य चरित्रों ने कहानी खुद कही है अपने नजरिये के साथ । हर व्यक्ति का सत्य के प्रति अपना एक नजरिया होता है, यह नजरिया ही हर व्यक्ति का सत्य भिन्न भिन्न कर देता है । यहां भी यही है, लेकिन सारी संवेदना विलासी मेजोकुमार के साथ है जो सन्यासी बन चुका है, जिसकी हत्या का प्रयास किया गया है और जो अपने आप को खोज रहा है । इस उपन्यास की एक खासियत और भी है । आपने फिल्मों में या धारावाहिकों में अदालत के दृश्य देखे होंगे । 99 प्रतिशत वे दृश्य नाटकीय होते हैं और वास्तव में भारत की अदालतें इस तरह से काम नहीं करती जैसा कि फिल्में या टीवी दिखाते हैं । इस उपन्यास का आधा भाग अदालती कार्यवाही पर आधारित है । मुझे नहीं लगता की किसी भी हिंदी के उपन्यासकार/साहित्यकार ने अदालत की दीवानी कार्यवाही को इतना विस्तार से चित्रित किया है । ऐसा करने के लिये उसका वकील होना जरूरी है । पता नहीं जोशी जी को ‘दीवानी प्रक्रिया’ का इतना विशद ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ, लेकिन अगर आपने कभी अदालतों का मुंह नहीं देखा है (भगवान करे कि आपको कभी देखना भी न पड़े) तो इस उपन्यास से आपको सिविल प्रोसिडिग्ंस की अच्छी जानकारी हो जायेगी । अपनी तरफ से मैं आपको‘कौन हूँ मैं’ के बारे में काफी कुछ बता चुका हूँ । अब बारी है ‘कौन हूँ मैं’ की एक झलक आपको दिखाने की ।

नदी किनारे पहाड़ी पर सुरम्य वन प्रदेश के मध्य स्थित उसमहल में पहुंचने के बाद एक ओर गुरू महाराज के निर्देशन में मेरी ध्यान-साधना शुरू हुयी तो दूसरी ओर जड़ी-बूटियां जमा करने और उनसे औषध बनाकर देनेवाले लोकदास जी के सहायक के रूप में मेरी भूमिका बढती चली गयी । बता चुका हूँ कि गुरू महाराज के भक्तों में वैद्य के रूप में लोकदास जी की बड़ी साख थी । उस दूर दराज इलाके में रहने वाले राणा परिवार के लिये तो वह साक्षात धनवन्तरि ही हो गये । उनके सहायक की भूमिका में मुझे बहुधा मुख्य महल में जाना पड़ता और कभी कभी रनिवास में कदम रखने का अवसर भी मिलता । मुझे वह महल, वह सामन्ती जीवन सब बहुत आकर्षित  और उद्वेलित करने लगे । मैं बहुत उत्साह से ध्यान-साधना में बैठता किन्तु मेरा ध्यान था कि बार बार रनिवास में देखी हुई जेवरों से लदी, मांग में सिन्दूर भरी  सामन्ती स्त्रियों और उनकी दासियों की ओर भटकता । मुझे उनके अंगो के उभार याद आते । खासकार किशोरियों के । मैं अपने को उनके साथ लड़कियों के खेल खेलते देखता, खेल ही खेल में उनमें से किसी को चूमता हुआ या किसी की अंगिया में हाथ डालता हुआ पता । ये झांकियां मुझ साधक को अपनी ही दृष्टि में गिराने लगतीं । उद्विग्नता के साथ मेरी ग्लानि भी जुड़ने लगी । कुछ सप्ताह बाद गुरू महाराज ने मुझसे पूछा, ‘तो ब्रह्मचारी ध्यान-साधना से कुछ कम हुई तेरे मन की अशान्ति । थोड़ा हिचकिचाने के बाद मैंने स्वयं लज्जित होते हुये और उन्हें निराश करते हुए स्वीकार कर ही लिया कि ध्यान-साधना में बैठकर मुझे रनिवास की झांकियां ही दिखाई देती रही हैं और मेरे मन में अपने अतीत की स्मृति फिरसे प्राप्त करने की तड़प् बढ़ती ही जा रही है ।

   एक गहरी सांस लेकर गुरू महाराज बोले, ‘अगर तेरा मन यही जानने के लिये तड़प रहा है कि तू मसान में हमें मिलने से पहले कौन था तोउसका जवाब भी तेरे को ध्यान साधना से ही मिलना है पुत्तर ।  ध्यान साधना का तो ऐसा है उसे करते हुए लोगों को अपना पिछल जनम तक याद आ जाता है, आई तेरी समझ में ।  हो सकता है कि ये जो झांकियां तू देख रहा है इनका भी तेरी पुरानी जिंदगी से ही कोई ताल्लुक होवे । यह तो तभी पता चलना है जब मैंने तेरे को किसी बिल्कुल ही बियाबान जगह में ध्यान साधना करानी है । यहां तो तेरा ध्यान भटकता है निवास की ओेर । हम लोग कल ही ब्रहछत्र के लिए निकल पड़ेंगे जो तप करने वालों की भूमि है ।’

राणा का महल, रानियों की रूनझुन और बाणगंगा का फेनिल कोलाहल बहुत पीछे, बहुत नीचे छोडते हुए हम चढ़ाई चढ़ते गये । चढ़ाई पार मिली तपश्चर्या के लिए आदर्श ब्रहछत्र तीर्थ की निर्जन वनस्थली । गुरू महाराज बोले, ‘रनिवास और रानियों से बहुत दूर ले आया हूँ  तेरे को ब्रह्मचारी । अब भी ध्यान साधना में तेरे को उनकी ही झलक दिखाई देवे तो समझ लेना कि तेरे को अपनी पुरानी जिंदगी याद आने वाली है । उधर ही ध्यान लगाना । लेकिन जो तुझे कोशिश करने पर कुछ भी याद न आवे तो अपने सत्य को भुलाकर परम सत्य की खोज पर सारा ध्यान लगा देना पुत्तर ।’

  तो गुरू आज्ञा से मैंने अब ध्यान साधना में विष्णु मन्त्र के साथ साथ इस प्रश्न का भी जाप शुरू कर दिया कि कौन हूँ मैं ? शुरू में मेरा अन्तस इस प्रश्न की प्रतिध्वनी  ही सुनकर मौन हो जाता रहा । फिर मुझे राणा के महल की नहीं, बल्कि किसी और महल की छोटी छोटी  झलकियां दिखाई देने लगीं । और यह महल ऐसा था जिसमें गोरखाली नहीं बांग्ला बोली जा रही थी । उसके रनिवास में भी  हर उम्र की स्त्रियों की भरमार थी । और उन सबका लाड़ला था एक किशोर जो युवावस्था में कदम रख चुका था और मेरे जैसा लगता था । ये सभी झलकियां परस्पर असम्बद्ध तो थी ही इनमें मुझे अपने अतीत का कोई ठोस सुराग कहीं नहीं मिल पा रहा था । जैसे एक झलकी में मैंने देखा कि श्रीनगर में हमारे पास आने वालीउस तरूणी जैसी ही एक लड़की बालिकावधु बनी सेज पर बैठी है और उस किशोर को आता देख घबरा रही है । इसी तरह एक झलकी में मैंने देखा कि वहीं किशोर किसी ऐसे मकान में है जो राजसी नहीं है । वहां पलंग पर पड़ी दांत किटकिटाती युवती भी राजसी न होकर तामसी है, बाजारू है । किशोर उसे कम्बल ओढ़ाते हुए कह रहा है, ‘घबरा मत मैंने जेल वाले डाक्टर को बुला लिया है ।’  डाक्टर आता है थोड़ी देर में तो डाक्टर के स्टेथस्कोप लगाने के लिये वह किशोर उस युवती की छाती का थोड़ा भाग स्वयं उघाड़ता है सावधानी से । उसका व्यवहार पतिव्रत है । प्रेमीवत है । डाक्टर के जाने के बाद वह स्त्री किशोर की हथेली अपने तप्त माथे से लगाकर कहती है, ‘आज मैं यह जानकर धन्य हुई कुमार कि आप मुझ वेश्या से सचमुच प्यार करते हैं ।’

 इन झांकियों के आधार पर और अपने को उस किशोर से जोड़कर मैं मात्र इतना ही कह सकता था कि दार्जलिंग में मरने से पूर्व मैं किसी राजसी परिवार का बिगड़ा हुआ किन्तु लाड़ला, विवाहित बेटा था जिसे किसी वेश्या से प्यार था । किन्तु यह परिवार कौन सा था, कहां का था इसका कोई उत्तर नहीं दे पा रही थी मेरी साधना । उधर मेरी उद्विग्नता थी की बढ़ती ही चली जा रही थी । एक रात मैं इतना बेचैन हुआ कि सो ही नही सका । अभी पौ भी नहीं फटी थी  कि मैं उठ गया और नदी के हिमवत् जल में । स्नान करके भस्म लेप लगाकर वहीं बैठकर औरों की प्रतीक्षा करने की जगह ऊपर चोटी की ओर जाती पगडण्डी चढ़ता गया । जब पांव थक गये तब एक बड़ी सी शिला पर पद्मासन साथे बैठ गया । मैंने ध्यान साधना करने का कोयी यत्न नहीं किया । बस बैठा बैठा प्रभु से प्रार्थना करने लगा, कातर स्वर में कि मुझे अपने  घर परिवार को ढूंढ सकने का कोई तो ठोस सुराग दो । तभी खच्चरों की गलघण्टियों की आवाज सुनाई दी । मैंने आंखे खोलीं । नमक के बोरों से लदे खच्चर धूल उड़ाते हुए मेरे पास से गुजरे । उस धूल में मुझे घोड़ों की टापों से धूल के उड़ने की याद आने लगी ।  खच्चरों की गलघण्टियों के सुर में सुर मिलाकर मेरे अन्तस में भी कुछ टिनमिना उठा सहसा । मैंने देखी किसी महल के द्वार से निकलती दो घोड़ों वाली एक विलायती गाड़ी । वही किशोर बैठा हुआ है उसमें शान से । महल से बाहर निकलते ही वर्दी वाले कोचवान को परे कर वह रास स्वंय संभाल लेता है और चाबुक बरसा बरसा कर मजबूर करता है घोड़ों को चाल तेज करने के लिये । लोगबाग उसे देख रास्ते से कूदकर हटतें हैं और कूदते कूदते भी प्रणाम करना नहीं भूलते हैं । उन्हें डरता देख हॅंसता है किशोर । बाजार को पार कर नदी के साथ साथ चलती सड़क पर घोड़े धूल उड़ाते बढ़ते जाते हैं और फिर धूल के  बादल के बीच से झांकता है एक मील का पत्थर जिस पर लिखा है – ढाका ।

विस्मृत अतीत की ओर दौड़ती वह गाड़ी मेरे चाहने पर भी उस मील पत्थर से आगे बढ़ न सकी । बहुत चाबुक चलायी किन्तु कल्पना के हांफते घोड़े वहीं अड़कर खुरों से जमीन खोदने लगे । जो हो, ढाका मुझे न केवल बहुत सुना हुआ नाम लगा बल्कि अपने अतीत से जुड़ा  हुआ भी । मेरा मन अब ढाका-ढाका जपने लगा और इस जाप से उसकी उद्विग्नता शान्त होती चली गयी ।

मित्रों, इस उपन्यास को छापा है “वाणी” प्रकाशन ने । किताब का मूल्य रू0 250 के लगभग होगा । मैंने इसका पहला प्रिंट सन 2006 में खरीदा था तब यह रू0 196 में उपलब्ध था । ‘कौन हूँ  मैं’ एक प्रसिद्ध उपन्यास है इसलिये यह हर हिंदी साहित्य की किताबों की दुकाना पर आपको उपलब्ध होगा । यात्रा में या खाली वक्त में इसे जरूर पढ़ियेगा । शर्त लगाता हूँ की  कीमत वसूल हो जायेगी । चलता हूँ  । अगली बार आपको अपनी एक और प्रिय और जादुई किताब के बारे में जानकारी दूंगा । नमस्कार ।

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