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शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

ग़ालिब छूटी शराब

“ग़ालिब छूटी शराब” एक बेहतरीन संस्मरण है…इसके लेखक हैं स्वर्गीय रवीन्द्र कालिया जी, जिनका देहांत अभी ९ जनवरी को हुआ है. आखिर उनका लीवर अंत में जवाब दे ही गया…मेरी लाईब्रेरी में बंद किताबों के ढेरों लेखकों में से ऐसे कुछ गिने चुने लेखक हैं जिनसे मेरी मुलाकात हुई है….स्वर्गीय रवीन्द्र कालिया जी उनमे से एक हैं…..

रवीन्द्र कालिया जी का यह संस्मरण १९९९ में “हंस” पत्रिका में श्रृंखलाबद्ध रूप में प्रकाशित हुआ था….उन दिनों में हंस का नियमित पाठक होता था…..बाद में इसे वाणी प्रकाशन ने सन २००० में पुस्तक रूप में छपा जिसका नाम था ‘ग़ालिब छूटी शराब”. हंस में जब यह संस्मरण छप रहा था तभी पाठकों में यह लोकप्रिय हो गया था…और “ग़ालिब छूटी शराब” के रूप में जब इसे प्रकाशित किया गया तब तो इसने बिक्री के नए कीर्तमान बनाये.

“ग़ालिब छूटी शराब”के लेखक आज नहीं रहे….उनसे बहुत से लोग परिचित थे..साहित्य जगत को उनके जाने से धक्का लगा है…ममता कालिया, उनकी धर्म पत्नी, खुद भी एक बड़ी साहित्यकार हैं. रवीन्द्र कालिया और ममता कालिया की जोड़ी साहित्य जगत में प्रसिद्ध थी और एक अनोखी जोड़ी थी…इस जोड़ी की तुलना हम राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी की जोड़ी (दोनों पति पत्नी प्रसिद्ध साहित्यकार रहे हैं) से नहीं कर सकते क्योंकि राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी अलग हो गए थे. जबकि ममता और रवीन्द्र अंत तक साथ रहे और एक दूसरे के पूरक थे.

ravindra-kalia“ग़ालिब छूटी शराब”के लिखने के इतिहास से मैं भी रंच मात्र जुड़ा हुआ हूँ इसलिए ये किताब मेरे लिए खास हो जाती है…जब हंस में इसका आखिरी भाग छपा तब लेखक ने पाठकों से प्रतिक्रिया मांगी..मैंने एक पोस्टकार्ड में अपनी प्रतिक्रिया भेजी और रवीन्द्र कालिया ने उसे नोटिस भी किया….फिर एक बार मैं उनसे मिलने उनके घर मेंहदौरी कालोनी, इलाहबाद गया. ममता जी और रवीन्द्र जी गर्मजोशी से मिले..उन दिनों मेरे सिर पर हरिशंकर परसाई जी का भूत सवार था..मैं उन्हें तबियत से पढ़ रहा था.. रवीन्द्र जी के अभिन्न मित्र ज्ञानरंजन मध्य प्रदेश में हरिशंकर परसाई जी के भी मित्र थे और इसलिए परसाई जी जब इलाहाबाद आते (जो की बहुत समय तक देश की साहित्यिक राजधानी रहा है) तो कालिया जी के यहाँ भी आते…कालिया जी ने हरिशंकर परसाई के बारे में तमाम बातें बताई…फिर उन्होंने मेरे पोस्टकार्ड के बारे में भी बताया..उन्होंने ने “ग़ालिब छूटी शराब”का हार्डबेक संस्करण दिखाया जिसमे पीछे की तरफ उन लोगों के नाम थे जिन्होंने उन्हें पत्र लिखे थे……उन ढेर सारे नामों में एक मेरा भी नाम था.देख कर बहुत ख़ुशी हुई. पहली बार देश के एक बड़े प्रकाशन की किताब पर मेरा नाम छपा था…एक २०-२२ साल के लड़के के लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती थी…

मैंने कालिया जी की सिर्फ एक किताब पढी है और वो है “गलिब छूटी शराब”. कालिया जी नई कहानी विधा के सिपहसालारों में एक थे….उन्होंने बचपन में कहानी लिखना और दारू पीना दोनों एक साथ शुरू किया था जालंधर में. उनके बचपन के गुरु थे मोहन राकेश जी, जो की नई कहानी के त्रिदेवों में से एक थे. सिर्फ एक किताब पढ़ कर कोइ किसी का फैन हो सकता है तब आप समझ सकतें हैं की किताब वाकई बेजोड़ होगी….वाकई बेजोड़ है भी ..इस किताब के प्रसंशकों में खुद हिंदी के आलोचकगण भी शामिल थे…….फिर क्यों न हों…सारे आलोचकों से रवीन्द्र जी का दवा दारू का रिश्ता भी तो था…

“ग़ालिब छूटी शराब”एक संस्मरण है और यह रवीन्द्र जी ने तब लिखना शुरू किया था जब आज से १७ – १८ साल पहले डॉक्टरों ने उनसे कहा की या तो दारू पीना छोड़ो या फिर अंतिम सफ़र की तैयारी कर लो… रवीन्द्र जी की तबियत बहुत ख़राब हो गई थी, उनका लीवर जवाब दे रहा था और जब उन्हें लगा की शायद अब वो नहीं बचेंगे तब उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखनी शुरू की जो की बाद में “ग़ालिब छूटी शराब”के रूप में सामने आई..और चमत्कार देखिये की “ग़ालिब छूटी शराब”लिखते लिखते, अपना जन्म भर का जुर्म कुबूलते कुबूलते उनकी सेहत सही हो गयी और वो फिर मजे से १७ – १८ साल जी गए….कमाल है.. कलम में इतनी शक्ति होती है यह पहले किसी ने नहीं देखा था…

“ग़ालिब छूटी शराब”एक आत्मकथा है एक मरते हुए आदमी की जो बाद में जी उठा और न सिर्फ जी उठा बल्कि उसके इस संस्मरण ने उसे पहले से भी ज्यादा प्रसिद्ध कर दिया…उसके बाद वो ज्ञानपीठ के निदेशक रहे, तमाम पत्रिकाओं का सम्पादन किया वगैरह वगैरह…..पर “ग़ालिब छूटी शराब”इतनी बड़ी ब्लाक बस्टर कैसे बन गयी….?

प्रसिद्ध कवि यश मालवीय ने लिखा है ““ग़ालिब छूटी शराब”पढ़ कर लग रहा है, कालिया जी ने शराब छोड़ी है मगर शराफत नहीं. वह जिस मर्यादा के साथ सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं वह काबिले तारीफ है. हिंदी में इस तरह का शरारती गद्य कम लिखा गया है, जिसमे जीवन की साँसें प्रवाहमान हैं. “ग़ालिब छूटी शराब”का प्रकाशन एक सुखद परिघटना है.”

“ग़ालिब छूटी शराब”में कालिया जी की पूरी साहित्यिक यात्रा का वर्णन है. जिसमे वो अपने समय के तमाम साहित्यकारों के साथ अपने रिश्तों, दोस्ती और उनके साथ की गयी शराबखोरी का बेहिसाब हिसाब रखते हैं…..उनकी साहित्यिक यात्रा शुरू होती है जालंधर से जहाँ वो मोहन राकेश, सुदर्शन फाकिर, गजल सम्राट जगजीत सिंह, फिर दिल्ली में उनकी साहित्यिक रोज़गार यात्रा और उनके साथी, फिर बम्बई में “धर्मयुग” पत्रिका में धर्मवीर भारती के साथ उनका साथ और अंत में इलाहबाद में उनका अंतिम डेरा ज़माने तक की यात्रा का वर्णन है..इलाहबाद में वो आते है तो सीधे खूंटा गाड़ लेते हैं एक बड़े साहित्यकार “उपेन्द्र नाथ अश्क” के घर में…..इलाहबाद में उनके तमाम साहित्यकार मित्र बने…जिसमे थे साहित्य के बड़े नाम काशीनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन इत्यादि…

आप “ग़ालिब छूटी शराब”पढ़िए तो लगता है जैसे लेखक पूरी जिन्दगी एक बेफिक्र जीवन जीता रहा और साथ में साहित्यकार भी रहा..उनका पूरा जीवन एक होस्टल में रहने वाले विद्यार्थी की तरह बेफिक्र, बेलौस, अलमस्त, सीमाओं को तोड़ने वाला और जिन्दगी को हर पल जीने वाला रहा…खुशकिस्मत थे की उनको ममता जी जैसी पत्नी मिली अन्यथा उनका तम्बू कब का उखड़ चुका होता….उनकी गृहस्थी और साहित्य दोनों इमारतों की नींव में ममता जी थी…इसमें दो राय नहीं है…. “ग़ालिब छूटी शराब”को पाठकों ने बहुत प्यार दिया…एक तो कालिया जी का मृत्युशय्या पर अपने बेलौस, पारदर्शी शीशे की तरह, अपने जीवन का कुबूलनामा दुसरे गजब की आत्मकथात्मक शैली जो उर्दू के शायरों में ही मिलती है . फिर पाठकों की एक ऐसे लेखक के प्रति जिज्ञासा ….की कैसी आत्मकथा है जिसे लिखने के बाद मरता आदमी जी उठा……वैसे मैं कहूँगा की इस किताब में गजब का आकर्षण है…आपको इसके बारे में बताने के लिए यह किताब मैंने बुक सेल्फ से निकाली है और मैं खुद इसके पन्ने पलटते पलटते फिर से इसे पढने की चाह से भर गया हूँ. रवीन्द्र जी की यादें बसी हैं इस किताब में…और साथ मैं मेरी और उनकी मुलाकत की याद भी…..आँखें गीली हो रही हैं इसलिए अब और नहीं लिखूंगा……

वाणी प्रकाशन ने “ग़ालिब छूटी शराब” छापी है…किसी भी साहित्यिक किताबों की दुकान पर यह किताब मिल जाएगी.. एक बार आप भी पढ़िए..रवीन्द्र कालिया की लेखनी के फैन बन बन जायेंगे…पक्का.

किताब के कुछ अंश नीचे दे रहा हूँ.

इलाहाबाद में मेरे पास अपना कुछ भी नहीं था, जो कुछ था कर्ज का था। यही गनीमत थी कि मैं कर्ज की मय नहीं पीता था। इलाहाबाद आए एक वर्ष भी न हुआ था कि मेरा पहला कथा संग्रह ‘नौ साल छोटी पत्नीा’ प्रकाशित हुआ। उसमें लेखक परिचय कुछ इस प्रकार दिया हुआ था – रवींद्र कालिया, उम्र तीस साल, कर्ज पैंतीस हजार। इस परिचय के बावजूद यहाँ के लेखक बंधु मुझे धन्नाी सेठ समझते थे, जबकि मैं बीड़ी-सिगरेट को मोहताज था। मुझमें एक खामी यही थी कि मैं अपनी गुरबत का बखान नहीं करता था, इसका नतीजा यह निकला कि वक्तो जरूरत बिरादरी के लोग प्रायः संकट में डाल देते। मेरी स्थििति का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि शादी के बाद हम मियाँ-बीवी अलग-अलग रहने को मजबूर थे। ममता उन दिनों मुंबई के महिला विश्वबविद्यालय एस.एन.डी.टी. में अंग्रेजी की प्राध्याबपिका थी। वह होस्टसल में अकेले रह रही थी, मैं अश्क जी के यहाँ तंबू गाड़े हुए था। मैं अश्क जी के भरे-पूरे परिवार के साथ रह रहा था। आवास और भोजन की कोई समस्याा नहीं थी, जेब खर्च के लिए ममता मनीआर्डर भिजवा देती थी, मगर मेरी मुफलिसी का एहसास किसी को नहीं था। मुंबई से मैं अपने साथ रेफ्रिजरेटर और कुकिंग गैस का कनेक्श न लाया था। इलाहाबाद में उन दिनों इन दोनों उपकरणों का ज्यादा प्रचलन नहीं था। अश्क जी के यहाँ भी चूल्हेा पर खाना बनता था। कौशल्या जी को गैस काफी सुविधाजनक लगी। रेफ्रिजरेटर सीधा रानी मंडी पहुँच गया था। घड़े का ठंडा पानी पीनेवाले रेफ्रिजरेटर का पानी पी कर मुझे कोई रईसजादा समझ लेते, जबकि मुंबई के जीवन में कामकाजी दंपती के लिए रेफ्रिजरेटर एय्या शी नहीं बुनियादी जरूरत थी। यह विरोधाभास ही था कि मुंबई का एक गरीब लेखक इलाहाबाद का संघर्षशील लेखक नहीं दिखाई दे रहा था। दोनों शहरों की जीवन शैली और मूल्योंल में इतना अंतर था कि जब आकाशवाणी ने मेरे प्रसारण शुरू किए तो पाया कि मेरी फीस इलाहाबाद के वरिष्ठं लेखकों के बराबर थी। इलाहाबाद में लेखकों को जितनी फीस मिलती थी उससे मुंबई में तो लेखकों का टैक्सी भाड़ा न निकलता।
बाहर से कोई लेखक इलाहाबाद पधारता तो कई मेजबान अपने मेहमान को ले कर इस अपेक्षा से मेरे यहाँ चले आते कि शाम अच्छीत गुजर जाएगी, मगर जल्दक ही लोगों का मोहभंग होने लगा। मुझे तो सिगरेट के लाले पड़े हुए थे। मैंने कभी घटिया ब्रांड की सिगरेट न पी थी। एक बार तलब लगी तो सिगरेटवाले से उधार माँगने की मूर्खता कर बैठा। उसने स्प ष्‍ट रूप से मना कर दिया। मुझे हमेशा के लिए एक सबक मिल गया। यह दूसरी बात है कि बाद के वर्षों में सिगरेटवाले को जरूरत पड़ती तो मुझसे उधार ले जाता। उसे याद भी न होगा कि शुरू के दिनों में उसी ने मुझे एक सबक सिखाया था। अपनी तंगदस्तीर की एक घटना तो भुलाए नहीं भूलती। इलाहाबाद के लिए यह कोई अनूठा अनुभव नहीं था। प्रायः सभी लेखक संघर्षरत थे। उन दिनों शराब का भी इतना रिवाज नहीं था। शायद ही कोई लेखक नियमित रूप से मदिरापान करता हो। ज्यादातर लेखक पैदल टहलते हुए ही मिलते थे, जबकि चौक से स्टेरशन तक का रिक्शास भाड़ा मात्र दस नए पैसे था। शायद यही कारण था कि आर्थिक संघर्ष में भी वे मस्त रहते। धनोपार्जन किसी की प्राथमिकता में ही नहीं था। एक सिगरेट चार-छह लोग पी जाते थे।
छुट्टी के एक दिन दोपहर को किसी ने दरवाजा खटखटाया। मैं शहर में नया-नया आया था किसी की प्रतीक्षा भी न थी। ऊपर से झाँक कर देखा, हिंदी के एक अत्यंत प्रतिष्ठिित और बुजुर्ग रचनाकार दरवाजा पीट रहे थे। मैं भाग कर नीचे पहुँचा, उन्हें् दफ्तर में बैठाया। आदर सत्कारर क्याक करता, घर में चाय बनाने की भी सुविधा न थी और सर्वेश्व र के शब्दों में कहूँ तो जीवन ‘खाली जेबें, पागल कुत्तेय और बासी कविताएँ’ था। खाने पीने की व्य्वस्थां अश्कन जी के यहाँ थी, इसलिए निश्चिंात था। मुझसे अश्क जी की एक ही अपेक्षा थी कि वे दिन भर जितना लिखें, मैं शाम को सुन लूँ। शुरू में तो यह बहुत सम्माहनजनक लगता था कि एक अत्यंत वरिष्ठख लेखक मुझे इस लायक समझ रहा है कि मैं उनकी रचना पर कोई राय दे सकूँ। मगर कुछ दिनों बाद मैं इससे ऊबने लगा।
‘आज बहुत मुसीबत में तुम्हाहरे पास आया हूँ।’ उन बुजुर्ग रचनाकार ने बताया कि उनकी पत्नीव को ‘हार्ट अटैक’ हो गया है और उन्हेंई किसी भी तरह सौ रुपए तुरंत चाहिए।’
सौ रुपए उन दिनों एक बड़ी रकम थी और मैंने दिन भर के लिए किसी तरह एक अठन्नीए बचा कर रखी हुई थी। मेरे लिए अचानक एक संकट खड़ा हो गया। चाह कर भी मैं उनकी कोई मदद नहीं कर सकता था। मैंने अत्यंत सकुचाते हुए उन्हें बताया कि उन्हेंई यकीन तो न आएगा मगर सच्चाकई यही है कि मेरे पास इस समय सिर्फ एक अठन्नीि है। वह हैरत और अविश्वाास से मेरी ओर देखने लगे। उनके चेहरे के आईने में मेरा गैरलेखकीय महाजनी चेहरा मुझे ही चिढ़ा रहा था। मुझे लगा, मेरी बात सुन कर वह संतप्तक ही नहीं, आहत भी हुए हैं। उन्हों ने नजर उठा कर प्रेस का जायजा लिया और लंबी साँस भरते हुए बोले, ‘जो ईश्वीर को मंजूर है। कहीं और जा कर हाथ फैलाता हूँ।’ यह देख कर मुझे भी मर्मांतक पीड़ा हो रही थी कि इतने वर्ष घोर तपस्याह करने का समाज ने उन्हेंय यह पुरस्कारर दिया है कि वह अपनी पत्नीक के इलाज को मुहताज हैं। वह कुछ देर तक चिंतामग्नह बैठे रहे, पानी पिया और बोले, ‘आप वह अठन्नीह ही दे दीजिए ताकि रिक्शार करके दौड़ भाग कर सकूँ।’ मैंने खुशी-खुशी अपनी अंतिम पूँजी उन्हेंन सौंप दी। यह दूसरी बात है कि मैं अब सिगरेट के लिए भी मोहताज हो गया था।
हिंदी के वह मूर्द्धन्यट साहित्यत साधक चले गए। मुझे भी कोई काम नहीं था, मैं भी उनके पीछे चल दिया, यह सोच कर कि देखते हैं इस विषम परिस्थि ति से वह कैसे निपटते हैं। वह लोकनाथ की तंग गलियों में खरामा-खरामा बढ़ने लगे। चौराहे पर एक पान की दुकान पर उन्हों ने एक जोड़ा पान लिया और कुछ दूर जा कर रिक्शाौ में बैठ कर कहीं रवाना हो गए। मैं पैदल ही लूकरगंज की तरफ चल दिया ज्ञान के यहाँ। ज्ञान को बताया कि अमुक लेखक की पत्नीह को हार्ट अटैक हो गया है और वह बहुत परेशान थे। ज्ञान पर मेरी बात का कोई असर न हुआ, बोला, ‘भैया यह इलाहाबाद है। इसकी लीला न्या री है। तुम अपना खून मत सुखाओ। उनकी पत्नीह स्वलस्थ प्रसन्नब हैं और संगम पर एक आश्रम में कल्पपवास कर रही हैं। यकीन न हो तो चलो मेरे साथ अपनी आँखों से देख लो।’
ज्ञान ने लोकनाथ जा कर नाश्ताे कराया और फिर हम लोग सचमुच संगम की तरफ चल दिए। जब तक हम सच्चाथ बाबा आश्रम पहुँचे दोपहर ढल चुकी थी। सच्चा बाबा के आश्रम में प्रवचन कीर्तन का माहौल था। हमने देखा लेखक दंपति तन्मरयता से कीर्तन-भजन में संलग्न् थे।
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