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शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

रानी नागफनी की कहानी

“रानी नागफनी की कहानी” हरिशंकर परसाई जी का छोटा सा व्यंग्य उपन्यास है । परसाई जी को हास्य व्यंग्य की दुनिया का ‘सम्राट’ कहा जाता है । व्यंग्य हास्य से भिन्न होता है । दोनों में बाल बराबर का फर्क होता है पर इस फर्क को समझ पाना बहुतों के लिये मुश्किल होता है । हास्य-व्यंग्य की परंपरा भारतीय साहित्य और विदेशी साहित्य में बहुत पुरानी है । भारतीय साहित्य में हास्य व्यंग्य की परंपरा या इतिहास की जानकारी लेने के लिये आप हमारा एक दूसरा लेख पढ़ सकते हैं ।

भारतीय संस्कृति में हास्य वंयग्य की जड़ें

आजादी के बाद के व्यंगकारों की पीढ़ी में हरिशंकर परसाई जी का नाम सबसे ऊपर आता है । उन्हें हम व्यंग सम्राट के नाम से जानते हैं । उनके तमाम लेख कोर्स में चलते हैं । इंटरमीडियट के पाठ्यक्रम में मैंने उनका लेख ‘निंदारस’ पढ़ा था । वहीं से मेरा उनसे परिचय हुआ और वो मेरी हिटलस्ट में आ गये । हिंदी साहित्य की किताबें मिलने की खास जगहें होती हैं । अगर आपको किसी खास लेखक की अमुक किताब पढ़नी है तब आपको उसे पढ़ने के लिये शहर की खास दुकान तक जाना पड़ेगा और खरीदना भी पड़ेगा । ये किताबें आपको आस पड़ोस में नहीं मिलेगी । उन दिनों मैं सिर्फ हास्य व्यंग्य की किताबें ही पढ़ा करता था और चुनिंदा लेखकों को ही पढ़ता था । फिर जिनको पढ़ता था उनकी बाजार में उपलब्ध सारी किताबें में धीरे धीरे खरीद लेता था । इस तरह मेरी अलमारी में चुनिंदा लेखकों की लगभग सारी किताबें मिलेंगी । बंधे बंधाये जेब खर्च को किताबों पर खर्च करने के लिये एक दीवानापन चाहिये और वह दीवानापन मुझमें आज से 22-23 साल पहले जितना था वो आज भी कायम है ।

हरिशंकर परसाइ जी का जन्म 22 अगस्त 1924 को जमानी (इटारसी के पास) मध्य प्रदेश में हुआ था और निधन 10 अगस्त 1995 को हुआ था । वे पूरे जीवन किसी के नौकर न हुये बल्कि स्वतंत्र लेखन को ही अपने जीवनयापन का जरिया बनाया । उनकी प्रसिद्ध व्यंग पुस्तकें हैं: हॅंसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे (कहानी संग्रह), रानी नागफनी की कहानी और तट की खोज (उपन्यास), तब की बात और थी, भूत के पॉंव पीछे, बेईमानी की परत, वैष्णव की फिसलन, पगडंडियों का जमाना, शिकायत मुझे भी है, सदाचार का ताबीज, विकलांग श्रद्धा का दौर, (व्यंग निबंध संग्रह), हम एक उम्र से वाकिफ हैं, जाने पहचाने लोग (संस्मरण), परसाई रचनावली (समग्र साहित्य) ।

परसाई जी ने जबलपुर से एक साहित्यिक पत्रिका ‘वसुधा’ भी निकाली थी । उपरोक्त पुस्तकों के अलावा उन्होंने तमाम पत्र पत्रिकाओं में व्यंग कॉलम भी लिखे जो जनमानस में काफी लोकप्रिय हुये । उनके प्रसिद्ध कॉलम थे: ‘नई दुनिया’ में ‘सुनो भई साधो’ । ‘नई कहानियॉं’ में ’पॉंचवॉं कॉलम’ और ’उलझी-उलझी’ । ’कल्पना’ में ’और अंत में’ । ’सारिका’ के लिये ’तुलसीदास चंदन घिसे’ और ’कबिरा खड़ा बाजार में’ ।

परसाई जी का पूरा साहित्य व्यंग्य से भरा हुआ है पर जब आप उनका उपन्यास ”रानी नागफनी की कहानी“ पढ़ेंगे तो पायेंगे की यह हास्य से भी भरपूर है । यह उपन्यास आधारित है राजकुमार अस्तभान और राजकुमारी नागफनी की प्रेम कहानी पर । इसकी शुरूआत होती है ’भेड़ाघाट’ से जो कि जबलपुर में नमर्दा नदी पर स्थित संगमरमर का 400 फिट ऊॅंचा एक जलप्रपात है । लेखक के अनुसार उस जमाने में असफल प्रेमीजन, परीक्षा में फेल हुये विद्यार्थी और बेकारी से त्रस्त युवाजन भेड़ाघाट पर जाकर आत्महत्या किया करते थे । तत्कालीन सरकार ने वहॉं बाकायदा एक आत्महत्या विभाग बना रखा था जो ऐसे लोगों को पूरी सहायता देता था । लगातार पांचवे प्रेम में असफल राजकुमारी नागफनी और लगातार तीसरी बार बी. ए. की परीक्षा में फेल हुए राजकुमार अस्तभान दोनों की निगाहें भेड़ाघाट के घाट पर लड़ जाती हैं और यहॉं से उनकी प्रेम कहानी शुरू होती है, जिसमें तमाम दुश्वारियॉं उनके सामने खड़ी हो जाती हैं ।

परसाई जी ने इस प्रेम कहानी के समानांतर समाज और सरकार में फैले भ्रष्टाचार पर भी व्यंग्य किया है । जैसे जेल से छूटा दुर्दांत डाकू बाद में प्रसिद्ध महात्मा का वेश धारण कर समाज को बड़े स्तर पर छलता है । शिक्षा व्यवस्था और सरकारी नौकरी के इम्तिहानों में व्याप्त भाई भतीजावाद पर परसाई जी का व्यंग हंसाता कम है और मायूस अधिक करता है । आधुनिक काव्य और मॉर्डन आर्ट पर भी परसाई जी व्यंग का नश्तर चला देते हैं । प्रेम विवाह में दहेज वसूलने वाले चतुर सुजानों पर भी परसाई जी ने व्यंगबाण चलाये हैं । राजा जब प्रजा की मुसीबतों को कम नहीं कर पाता तो राष्ट्रधर्म के नाम पर पड़ोसी राज्य से युद्ध छेड़ देता है और प्रजा युद्ध में शामिल हो कर अपने दुख दर्द भूल जाती है । राजनीति में स्वार्थ ही परमार्थ है इसकी भी झांकी आपको इस प्रेम कहानी में मिलती है ।

इस छोटे से व्यंग उपन्यास की एक विशेषता यह भी है कि परसाई जी के साहित्य में आपको पहली बार हास्य मिश्रित व्यंग के दर्शन होंगे । परसाई जी का 95 प्रतिशत व्यंग साहित्य (जिन किताबों का मैंने ऊपर जिक्र किया है) उस समय के समाज, राजनीति, साहित्य, अर्थिक स्थितयों पर किया गया भयानक और तेजाबी व्यंग है । उनके व्यंग की धार किसी सर्जन के चाकू से भी अधिक तेज है । परसाई जी के बेबाक और धारदार व्यंग की वजह से जहॉं उनके ढेरो प्रशंसक थे तो उनसे शत्रुता रखने वाले भी कम नहीं थे और शायद इसी वजह से परसाई जी पर हमले भी होते रहते थे ।

“रानी नागफनी की कहानी” एक मजेदार व्यंग उपन्यास है । इसका रसास्वादन करने के लिये इस उपन्यास की कुछ मजेदार झलकियॉं में नीचे दे रहा हूँ  । इस उपन्यास को ‘वाणी प्रकाशन’ ने प्रकाशित किया है । आपके शहर के किसी भी साहित्यिक किताबों की दुकान पर यह किताब मिल जायेगी । हरिशंकर परसाई जी का पूरा साहित्य हमेशा डिमांड में रहता है इसलिये आपको ढूंढने में परेशानी नहीं होगी ।

नीचे दिया गया उपन्यास का अंश “गद्यकोश डाट ओ आर जी” से लिया गया है.

मुफतलाल की आँखों से टपटप आँसू चूने लगे। वह बोला, ‘कुमार मैं पास हो गया, इस ग्लानि से मैं मरा जा रहा हूँ। आपके फेल होते हुए मेरा पास हो जाना इतना बड़ा अपराध है कि इसके लिए मेरा सिर भी काटा जा सकता है। मैं अपना यह काला मुँह कहाँ छिपाऊँ ? यदि हम दूसरी मंजिल पर न होते, जमीन पर होते, तो मैं कहता-हे माँ पृथ्वी, तू फट जा और मैं समा जाऊँ।’

मित्र के सच्चे पश्चात्ताप से अस्तभान का मन पिघल गया। वह अपना दुख भूल गया और उसे समझाने लगा, ‘मित्र, दुखी मत होवो। होनी पर किसी का वश नहीं। तुम्हारा वश चलता तो तुम मुझे छोड़कर कभी पास न होते।’ मुफतलाल कुछ स्वस्थ हुआ। अस्तभान ने अखबारों को देखा और क्रोध से उसका मुँह लाल हो गया। उसने सब अखबारों को फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर दिया। फिर पसीना पोंछकर बोला, ‘किसी अखबार में हमारा नाम नहीं छपा। ये अखबार वाले मेरे पीछे पड़े हैं ये मेरा नाम कभी नहीं छापेंगे। भला यह भी कोई बात है कि जिसका नाम अखबार वाले छापें, वह पास हो जाए और जिसका नाम न छापें, वह फेल हो जाए। अब तो पास होने के लिए मुझे अपना ही अखबार निकालना पड़ेगा। तुम्हें मैं उसका सम्पादक बनाऊँगा और अब तुम मेरा नाम पहले दर्जे में छापना।’

मुफतलाल ने विनम्रता से कहा, ‘सो तो ठीक है, पर मेरे छाप देने से विश्वविद्यालय कैसे मानेगा ?’ कुँअर ने कहा, ‘और इन अखबारों की बात क्यों मान लेता है ?’ मुफतलाल का हँसने का मन हुआ। पर राजकुमार की बेवकूफी पर हँसना, कानूनन जुर्म है, यह सोचकर उसने गम्भीरता से कहा, कुमार पास फेल तो विश्वविद्यालय करता है। अखबार तो इसकी सूचना मात्र छापते हैं।’

अस्तभान अब विचार में पड़ गया। हाथों की उँगलियाँ आपस में फँस गयीं और सिर लटक गया। बड़ी देर वह इस तरह बैठा रहा। फिर एकाएक उठा और निश्चय के स्वर में बोला, ‘सखा, हम आत्महत्या करेंगे। चार बार हम बी.ए. में फेल हो चुके। फेल होने के बाद आत्महत्या करना वीरों का कार्य है। हम वीर-कुल के हैं। हम क्षत्रिय हैं। हम आन पर मर मिटते हैं। हमें तो पहली बार फेल होने पर ही आत्महत्या कर लेनी थी। पर हमने विश्वविद्यालय को तीन मौके और दिये। अब बहुत हो चुका। हमें आत्महत्या कर ही लेनी चाहिए। जाओ, इसका प्रबन्ध करो।’

मुफतलाल उसके तेज को देखकर सहम गया। वह चाहता था कि अस्तभान कुछ दिन और जिन्दा रहे। उसने डिप्टी कलेक्टरी के लिए दरख्वास्त दी थी और चाहता था अस्तभान सिफारिश कर दे। वह समझाने लगा, कुमार मन को इतना छोटा मत करिये। आप ऊँचे खानदान के आदमी हैं। आपके कुल में विद्या की परंपरा नहीं है। आपके पूज्य पिता जी बारह खड़ी से मुश्किल से आगे बढ़े और आपके प्रातः स्मरणीय पितामह तो अँगूठा लगाते थे। ऐसे कुल में जन्म लेकर आप बी.ए. तक पढ़े, यह कम महत्त्व की बात नहीं है इसी बात पर आपका सार्वजनिक अभिनंदन होना चाहिए। कुमार, पढ़ना-लिखना हम छोटे आदमियों का काम है। हमें नौकरी करके पेट जो भरना है। पर आपकी तो पुश्तैनी जायदाद है। आप क्यों विद्या के चक्कर में पड़ते हैं ?’

दुविधा पैदा हो गयी थी। ऐसे मौके पर अस्तभान हमेशा मुफतलाल की सलाह माँगता था। उसे विश्वास था कि वह उसे नेक सलाह देता है। कहने लगा, ‘मित्र, मैं दुविधा में पड़ गया हूँ। तू जानता है मैं तेरी सलाह मानता हूँ। जो कपड़ा तू बताता है, वह पहनता हूँ। जो फिल्म तू सुझाता है, वही देखता हूँ। तू ही बता मैं क्या करूँ। मैं तो सोचता हूँ कि आत्महत्या कर ही लूँ।’

मुफतलाल ने कहा, ‘जी हाँ, कर लीजिए।’ अस्तभान कुछ सोचकर बोला, या अभी न करूँ ?’ मुफतलाल ने झट कहा, जी हाँ, मत करिए। मेरा भी ऐसा ही ख्याल है।’ कुँअर फिर सोचने लगा। सोचते-सोचते बोला, एक साल और रुकूँ। अगले साल कर लूँगा। क्या कहते हो ?’ मुफतलाल ने कहा, जी हाँ मैं भी सोचता हूँ कि अगले साल ही करिए। कुँअर फिर बोला, ‘पर फेल तो अगले साल भी होना है। अच्छा है, अभी आत्महत्या कर डालूँ।’ मुफतलाल ने कहा, ‘जी हाँ, जैसे तब वैसे अब। कर ही डालिए।’

कुँअर अस्तभान बहुत प्रसन्न हुआ। उसने मुफतलाल को गले से लगाकर कहा, ‘मित्र, मैं इसीलिए तो तेरी कद्र करता हूँ कि तू बिलकुल स्वतंत्र और नेक सलाह देता है। तुझ-सा सलाहकार पाकर मैं धन्य हो गया।’ मुफतलाल सकुचा गया। कहने लगा, ‘हैं हैं, यह तो कुमार की कृपा है। मैं तो बहुत छोटा आदमी हूँ। पर इतना अलबत्ता है कि जो बात आपके भले की होगी, वही कहूँगा-आपको बुरा लगे या भला। मुँह देखी बात मैं नहीं करता।’

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