लेखक – श्री नरेश मिश्र
हास्य व्यंग्य का मूल स्रोत हमारी हजारों बरस पुरानी संस्कृति, सभ्यता और जीवन दर्शन में देखा जा सकता है । भारतीय संस्कृति में मृत्यु, भय और दु:ख का कोई खास वजूद नहीं है । हमारे दार्शनिकों ने जिस ब्रह्म की अवधारणा को समाज के सामने रखा वह सत् चित् के साथ ही आनंद का स्वरूप है । ब्रह्म आनंद के रूप में सभी प्राणियों में निवास करता है । उस आनंद की अनुभूति जीवन का परम लक्ष्य माना जाता है । इसी से ब्रह्मानंद शब्द की रचना हुयी है । वह रस, माधुर्य, लास्य का स्वरूप है । इसीलिये ब्रह्म जब माया के संपर्क से मूर्तरूप लेता है तो उसकी लीलाओं में आनंद को ही प्रमुखता दी गयी है । हमारे कृष्ण रास रचाते हैं, छल करते हैं, लीलायें दीखाते हैं । वे वृंदावन की कुंज गलियों में आनंद की रसधार बहा देते हैं । मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम भी होली में रंग, गुलाल उड़ाते हैं और सावन में झूला झूलते हैं । उनकी मर्यादा मे भी भक्त आनंद का अनुभव करते हैं ।
हमारी संस्कृति में मृत्यु और दु:ख को ज्यादा अहमियत नहीं दी गयी है । मृत्यु एक परिवर्तन का प्रतीक है । हम नहीं मानते कि शरीर के साथ आत्मा मर सकती है । वह तो एक पहनावा बदल कर दूसर पहन लेती है । हमारे देश में प्रचलित ऐसे मत, पंथ भी हैं जिनमें शरीर का समय पूरा होने पर खुशी मनाई जाती है । नाच-गाने के साथ, बड़े उमंग और उत्साह से पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार यह मानकर किया जाता है कि जीवात्मा अब अपने स्वामी ब्रह्म से मिलने जा रही है । मिलन की इस पावन बेला मे दु:ख, दर्द और शोक की जरूरत नहीं है ।
हमारे नटराज भोले भण्डारी सामाधि के साथ ही आनंद के भी प्रतीक हैं । वे नृत्य, गायन, व्याकरण, भाषा और ऐसी तमाम गतिविधियों के केन्द्र हैं जिनसे प्राणी के मन में आनंद का सागर हिलोरें लेने लगता है । हमारे अवतारों की तिथियाँ बड़े उत्साह और पूरी श्रध्दा के साथ मनाई जाती हैं । इन अवतारों की निधन तिथियों को कोई भूल कर भी याद नहीं करना चाहता है । वजह साफ है । हम मानते हैं कि अवतार ने प्रकट होने का उद्देश्य पूरा कर लिया अब उसे मूल तत्व यानि ब्रह्म में लीन हो जाना चाहिये ।
हास्य व्यंग्य की यह धारा वेदों के जमाने से लगातार हमारे देश मे बह रही है । इसी सांस्कृतिक अवधारणा ने हमें वह अमृत पिलाया है जिसके सबब हमारी सभ्यता आज भी सनातन कही जाती है । भारतीय संस्कृति में ईश्वर की अवधारणा इस तरह रची बुनी गयी है कि हम उससे डरते नहीं हैं । वह कोयी ऐसी शक्ति नहीं है जिससे डरना जरूरी हो । वह प्राणियों में भय का संचार नहीं करता । वह हमारा आदि स्रोत है । हम उसी के अंग हैं । वह जड़ चेतन में व्याप्त है । हम उसके के साथ कोई भी रिश्ता बनाने के लिये स्वतंत्रत हैं । इसीलिये संत कबीर ने कहा था –
हम बहनोई, राम मोर सार । हमहिं बाप, हरिपुत्र हमारा ।
कोई उपासक अपने उपास्य से इमने आत्मविश्वास के साथ ऐसा रिश्ता जोड़ने का साहस नहीं कर सकता । यह हमारी संस्कृति की खास देन है । हम अपने उपास्य से अनेक रूपों में प्रेम कर सकते हैं । हम उसके दास, सखा, सेवक यहां तक कि शत्रु और स्वामी भी बन सकते हैं । हमारी इसी वैचारिक स्वतंत्रता ने समाज को हास्य व्यंग्य का उपहार दिया है ।
हम मानते हैं कि ब्रह्म के अलावा सभी जीव गुण और दोष के पुतले हैं । गुण और दोष का मिश्रण ही मनुष्य की खास पहचान है । हम आनंद की अनुभूति के लिये पैदा हुये हैं । रोने-धोने, बिसूरने और निषेधात्मक भयादोहन करने वाली चिंताओं में बैचेन रह कर जिंदगी गुजारना हमारे जीवन का मकसद कतई नहीं है । समाज में विषमताएं हैं, गरीबी है, आर्थिक द्वंद हैं, दुरूह समस्याएं हैं इसके बावजूद हर हाल मे हंसते रहना और चुनौतियों का डट कर मुकबला करना हमारी संस्कृति का मूल संदेश है । इसलिये हम आये दिन त्यौहार मनाते हैं और सारे गमों को भुलाकर आनंद की नदी में डुबकी लगाते हैं । हम बूढ़े नहीं होते । हमारा शरीर बूढ़ा होता है । बुढ़ापे में भी फागुन आता है तो होली के हुड़दंग में जवान महिलाओं को बुढ़ऊ बाबा से देवर का रिश्ता जोड़ने में कोई हिचक नहीं होती । वे मगन हो कर गाने लगते हैं –
फागुन में बाबा देवर लागे ।
यह बंधनों से मुक्त समाज का प्रतीक है । हम अपने आराध्य देवताओं के साथ भी हंसी मजाक करने से बाज नहीं आते हैं । कुछ नमूने देखिये । भगवान जगन्नाथ के मंदिर में उनका दर्शन कर एक भक्त कवि के मन में सवाल उठता है कि भगवान काठ क्यों हो गये । कठुआ जाना लोक बोली का एक मुहावरा है । भक्त अपनी कल्पना की उड़ान से संस्कृत में जो छंद रचता है उसका हिन्दी रूपान्तर कुछ इस तरह किया जा सकता है –
भगवान की एक पत्नी आदतन वाचाल हैं (सरस्वती) दूसरी पत्नी (लक्ष्मी) स्वाभाव से चंचल हैं । वह एक जगह टिक कर रहना नहीं चाहतीं । उनका एक बेटा कामदेव मन को मथने वाला है । वह अपने पिता पर भी हुकूमत कायम करता है (कामदेव) । उनका वाहन गरूड़ है । विश्राम करने के लिये उन्हें समुद्र में जगह मिली है । सोने के लिये शेषनाग की शैय्या है । भगवान विष्णु को अपने घर का यह हाल देख कर काठ मार गया है ।
कवि भक्त है । उसके मन मे अपार श्रध्दा है । वह आराध्य का अपमान नहीं करना चाहता लेकिन उनके साथ हंसी मजाक करने से बाज नहीं आता ।
दूसरा भक्त कवि आशुतोष शंकर का दर्शन कर सोचता है कि इस भोले भण्डारी, जटाधारी, बाघम्बर वस्त्र पहनने वाले के पास खेती-बारी नहीं है । रोजी का कोई साधन नहीं है तो इनका गुजारा कैसे होते है ।
भक्त संस्कृत में छंद कहता है –
उनके पास पांच मुंह हैं । उनके एक बेटे (कार्तिकेय) के छह मुंह हैं । दूसरे बेटे गजानन का पेट तो हाथी का है । यह दिगबंर कैसे गुजारा करता अगर अन्नपूर्णा पत्नी के रूप में उसके घर नहीं आतीं ।
तीसरा भक्त कवि कहता है कि भगवान शंकर बर्फीले केलाश पर्वत पर रहते हैं । भगवान विष्णु का निवास समुद्र में है । इसकी वजह क्या है ? निश्चित ही दोनों भगवान मच्छरों से डरते हैं इसलिये उन्होंने ने अपना ऐसा निवास स्थान चुना है ।
मृच्छकटिक नाटक के रचयिता राजा शूद्रक हैं । वह ब्राह्मणों की खास पहचान यज्ञोपवीत की उपयोगिता के बारे में ऐसा व्यंग्य करते हैं जिसे सुन कर हंसी आती है । वह कहता है कि यज्ञोपवीत कसम खाने के काम आता है । अगर चोरी करना हो तो उसके सहारे दीवार लांघी जा सकती है ।
संस्कृत, पालि, अपभ्रंश साहित्य में हास्य व्यंग्य के हजारों उदाहरण मिल सकते हैं । कहीं ये उक्तियाँ गहरे उतर कर चोट करती हैं । कहीं सिर्फ गुदगुदा कर पाठकों और दार्शकों को हंसने पर मजबूर कर देती हैं ।
संस्कृत की यह धारा लोकजीवन में इस कदर रच बस गयी है कि आज भी हमारे लोकगीतों में देवताओं के साथ छेड़-छाड़, हंसी मजाक करने में लोक गायकों को कोई संकोच नहीं होता है । हरिमोहन झा ने अपनी हास्य व्यंग्य पर आधारित पुस्तक ”खट्टर काका” में देवी-देवताओं और अवतारों के साथ खूब जम कर ठिठोली की है । अगर भूल से यह पुस्तक किसी नास्तिक के हाथ लग जाये तो वह इस हंसी मजाक को गंभीरता से ले लेगा और उसकी नास्तिकता और प्रगाढ़ हो जायेगी जबकि यह देवी दवताओं के साथ किया गया मात्र हंसी मजाक है ।
हिन्दी और उर्दू साहित्य के विकास के साथ ही हास्य व्यंग्य विधा परवान चढ़ने लगी । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और अकबर इलाहाबादी जैसे कवियों ने इसे कलेवर दिया । बाबू बालमुकुंद गुप्त अपने अन्योक्तिपूर्ण व्यंग्य लेखन के लिये व्यंग्य साहित्य में एक नया मानक बनाने मे सफल हुये । उर्दू शायरों ने तो ब्रिटिश शासनकाल में अंग्रेजियत पर ऐसे तीखे प्रहार किये कि अंग्रेज उसे समझ भी नहीं पाते थे और हिन्दुस्तानी उसका जायका लेते थे ।
अकबर साहब फरमाते हैं –
बाल में देखा मिसों के साथ उनको कूदते ।
डार्विन साहब की थ्योरी का खुलासा हो गया ।
जनाब अकबर इलाहाबादी ब्रिटिश अदालत में मुंसिफ थे लेकिन वे अपने व्यंग के तीरों से ऐसा गहरा घाव करते थे कि पढ़नेवाला एक बार उसे पढ़कर हजारों बार उस पर सोचने को मजबूर हो जाता था । लार्ड मैकाले की शिक्षा पध्दति का पोस्टमार्टम जिस बेबाकी से अकबर साहब ने किया उसकी गहराई तक आज के व्यंगकार सोच भी नहीं सकते हैं –
तोप खिसकी प्रोफेसर पहुंचे । बसूला हटा तो रंदा है ।
प्लासी की लड़ाई में सिराज्जुदौला को शिकस्त देकर तमाम देसी रियासतों को जंग में मात देकर अंग्रेजों ने तोप पीछे हटा ली और अंग्रेजी पढ़ाने वाले प्रोफेसरों को आगे कर दिया । तोप के बसूले ने समाज को छील दिया और प्रोफेसर के रंदे ने उसे अंग्रेजों के मनमाफिक कर दिया । तोप और प्रोफसर का यह तालमेल ब्रिटिश शिक्षापध्दति पर बेजोड़ और बेरहम हमला है ।
पं0 मदनमोहन मालवीय और सर सैयद अहमद खाँ जिन दिनों हिन्दू यूनिवर्सिटी और मुस्लिम यनिवर्सिटी की स्थापना के लिये प्रयास कर रहे थे उन्हीं दिनों अकबर साहब ने एक शेर कहा था –
शैख ने गो लाख दाढ़ी बढ़ाई सन की सी । मगर वह बात कहाँ मालवी मदन की सी ।
यहाँ ”सन की” शब्द पर गौर कीजिये । दोनों शब्दों को मिला देने पर जो अर्थ निकलता है वह शायर के हुनर की मिसाल है । अकबर साहब पं0 मदनमोहन मालवीय कि मित्र थे । उन्हें सर सैयद अहमद खाँ की अंग्रेज परस्ती फूटी ऑंखों नहीं भाती थी । वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में कोताही नहीं करते थे ।
इक्कीसवीं सदी में हास्य व्यंग्य की विधा का नया कलेवर नई दिशा की ओर संकेत कर रहा है । वह समाज की विसंगतियों का आईना है । जनभावनाओं की हसरत नापने के लिये थर्मामीटर का काम करता है । हमारे तथाकथित लोकतंत्र में जितने पाखंड विद्रूप हैं, जितनी विसंगतियाँ हैं, सियासत में छल-प्रपंच का पासा खेला जा रहा है उसका चित्रण करने के लिये गंभीर गाढ़े शब्दों में रचे गये साहित्य की जरूरत नहीं है । बेरोजगारी, जनसंख्या विस्फोट, जाति विद्वेष, धार्मिक उन्मांद के दम घोंटू वातावरण में हास्य व्यंग समाज को ऑक्सीजन देने का काम करता है । इस बहाने समाज का तनाव कम होता है और उसे राहत मिलती है ।
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